‘विवाह संस्था पर दूरगामी प्रभाव’: वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के बारे में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया
Delhi: सर्वोच्च न्यायालय में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मुद्दे पर केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क ने देशभर में एक अहम बहस छेड़ दी है। इस बहस ने विवाह संस्था और उसके भीतर व्यक्तिगत अधिकारों के जटिल पहलुओं को उजागर किया है। जैसे-जैसे भारत भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) से नए अधिनियमित भारतीय न्याय संहिता की ओर बढ़ रहा है, सरकार ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के संभावित "दूरगामी प्रभाव" पर चिंता व्यक्त की है। केंद्र सरकार इस मुद्दे को केवल संवैधानिक वैधता तक सीमित नहीं मानती, बल्कि इसके सामाजिक और कानूनी परिणामों को भी ध्यान में रखने की बात कर रही है। हालांकि भारतीय न्याय संहिता ने आईपीसी की जगह ले ली है, लेकिन वैवाहिक बलात्कार का मुख्य मुद्दा एक विवादित कानूनी और सामाजिक विषय बना हुआ है, और याचिकाएं इस छूट को चुनौती देने की मांग कर रही हैं।
भारतीय कानून में वैवाहिक बलात्कार की छूट
जिस प्रावधान पर विवाद है, वह पहले आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 में निहित था, जिसमें कहा गया था कि यदि पत्नी नाबालिग नहीं है, तो पति द्वारा उसके साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं माना जाएगा। इस प्रावधान के कारण पति अपनी पत्नी के साथ गैर-सहमति वाले यौन संबंध बनाने के लिए कानूनी कार्रवाई से बच सकते थे। इस अपवाद का आधार वैवाहिक संबंधों की पारंपरिक धारणाओं पर टिका था, जिसमें माना जाता था कि यौन संबंध विवाह का एक अभिन्न हिस्सा हैं और विवाह में यौन संबंधों के लिए सहमति निहित होती है।
हालांकि, महिला अधिकार संगठनों और कानूनी सुधारवादियों ने इस प्रावधान का लंबे समय से विरोध किया है। उनका मानना है कि यह प्रावधान एक महिला के शारीरिक स्वायत्तता, सम्मान और कानून के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। उनके अनुसार, विवाह एक ऐसी संस्था नहीं होनी चाहिए जहाँ एक साथी को दूसरे साथी के शरीर पर अनियंत्रित अधिकार हो। वैवाहिक बलात्कार की छूट को मान्यता देना महिलाओं को यौन हिंसा से कानूनी संरक्षण से वंचित करता है और विवाह के भीतर महिलाओं की संपूर्ण सुरक्षा के अधिकार का उल्लंघन है।
केंद्र सरकार का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में, केंद्र ने जोर देकर कहा कि विवाह सहमति की अवधारणा को मिटा नहीं देता है, लेकिन वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाने से जटिलताएँ उत्पन्न होंगी जो विवाह और परिवार की स्थिरता को प्रभावित कर सकती हैं। सरकार का तर्क है कि विवाह के भीतर पति-पत्नी के बीच एक अनिवार्य "उचित यौन पहुँच" होती है, जो विवाह को अन्य प्रकार के यौन संबंधों से अलग करती है। सरकार का मानना है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने से वैवाहिक संबंधों की पारंपरिक समझ को चुनौती मिलेगी और इससे परिवारों में अस्थिरता, विवादों में वृद्धि और कानून के दुरुपयोग जैसी समस्याएँ सामने आ सकती हैं।
केंद्र का यह दृष्टिकोण विवाह जैसे लंबे समय तक चलने वाले और अंतरंग संबंधों पर आपराधिक कानून लागू करने में शामिल जटिलताओं को दर्शाता है। सरकार का कहना है कि विवाह में सहमति से जुड़े मुद्दों को हल करने के लिए केवल कानूनी दृष्टिकोण पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह मानती है कि हालांकि वैवाहिक बलात्कार एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इसके लिए पति को बलात्कार के अपराध में दंडित करना सबसे उपयुक्त समाधान नहीं हो सकता है। केंद्र का तर्क है कि ऐसे कानूनी उपाय मौजूद हैं जिनसे विवाह के भीतर सहमति का उल्लंघन होने पर समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
वैवाहिक बलात्कार अपवाद का विरोध
वैवाहिक बलात्कार अपवाद के विरोधियों का तर्क है कि यह प्रावधान पुरानी पितृसत्तात्मक धारणाओं का परिणाम है, जहाँ एक महिला की शारीरिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता को विवाह के भीतर दबा दिया जाता था। वे कहते हैं कि यह छूट महिलाओं को समान सुरक्षा से वंचित करती है, क्योंकि यह विवाह के भीतर और बाहर गैर-सहमति वाले यौन संबंधों के बीच अंतर करती है। उनके अनुसार, यह कानून यह मानता है कि विवाह पति को अपनी पत्नी के शरीर पर अधिकार देता है, जिससे महिलाओं के व्यक्तिगत स्वायत्तता और यौन संबंधों के निर्णय लेने के अधिकार का हनन होता है।
कानूनी विशेषज्ञ और कार्यकर्ता इस मुद्दे पर जोर देते हैं कि वैवाहिक बलात्कार की छूट भारतीय संविधान में निहित एक महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, जिनमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21), और लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15) शामिल हैं। उनका तर्क है कि विवाह किसी को यौन हिंसा का अधिकार देने का प्रमाणपत्र नहीं हो सकता है। कानून को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक महिला को अपने शरीर पर पूर्ण नियंत्रण हो, चाहे वह विवाह में हो या बाहर।
भारतीय न्याय संहिता और वैवाहिक बलात्कार
भारतीय न्याय संहिता की शुरूआत के बाद इस मुद्दे पर फिर से ध्यान दिया गया है। भारतीय न्याय संहिता, जो भारतीय दंड संहिता का स्थान लेती है, ने वैवाहिक बलात्कार की छूट को अभी भी बनाए रखा है। हालांकि कानूनी ढांचे में परिवर्तन हुए हैं, लेकिन वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना जाए या नहीं, यह मुद्दा अब भी अदालतों में विचाराधीन है। 17 मई, 2023 को, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस विषय पर नोटिस जारी किया था, जिसमें भारतीय न्याय संहिता के तहत वैवाहिक बलात्कार की छूट को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने की बात कही गई थी।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि इस छूट को जारी रखना आज की मानवाधिकार और लैंगिक समानता की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं है। वे कहते हैं कि वैवाहिक बलात्कार को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार अपराध घोषित किया जाना चाहिए, क्योंकि विवाह के भीतर यौन हिंसा को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
सामाजिक और कानूनी प्रभाव
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने पर होने वाली बहस व्यापक मुद्दों को छूती है, जिसमें विवाह की प्रकृति, सहमति और लैंगिक समानता शामिल हैं। अपराधीकरण के समर्थकों का कहना है कि यह कदम महिलाओं के अधिकारों को मजबूत करेगा और एक स्पष्ट संदेश देगा कि किसी भी संदर्भ में गैर-सहमति वाला यौन संबंध, चाहे वह विवाह में हो या नहीं, अस्वीकार्य है। इससे उन महिलाओं को कानूनी संरक्षण मिलेगा जो अपने विवाह के भीतर यौन हिंसा का शिकार होती हैं और इसके परिणामस्वरूप कानून के तहत सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार सुनिश्चित किया जा सकेगा।
हालांकि, केंद्र सरकार की यह चिंता कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के सामाजिक और कानूनी प्रभाव क्या होंगे, उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कई संस्कृतियों में विवाह को एक गहन व्यक्तिगत और अंतरंग संबंध के रूप में देखा जाता है और आपराधिक कानून के दायरे में विवाह के यौन संबंधों को लाने से समाज पर दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। कुछ आलोचकों को चिंता है कि इससे झूठे आरोपों में वृद्धि हो सकती है, कानून का दुरुपयोग हो सकता है और वैवाहिक विवाद बढ़ सकते हैं, जिससे पहले से ही व्यस्त न्यायपालिका पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा।
केंद्र का तर्क है कि विवाह को अन्य प्रकार के संबंधों से अलग माना जाना चाहिए। यह तर्क वैवाहिक संबंधों की उस पारंपरिक दृष्टिकोण का प्रतिबिंब है, जिसमें यौन संबंधों के लिए कुछ पारस्परिक अपेक्षाएँ होती हैं। लेकिन आधुनिक समाज में, विवाह को एक बराबरी के रिश्ते के रूप में देखा जाता है, जिसमें पति-पत्नी के बीच समानता, आपसी सम्मान और व्यक्तिगत अधिकारों को महत्व दिया जाता है। इस बहस से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में विवाह और लिंग भूमिकाओं को लेकर पारंपरिक और आधुनिक समझ के बीच एक व्यापक अंतर है।
निष्कर्ष
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने का मुद्दा भारत में कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से एक अत्यधिक जटिल और विवादित मुद्दा बना हुआ है। जहां एक ओर केंद्र सरकार वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के संभावित सामाजिक प्रभावों पर चिंता व्यक्त कर रही है, वहीं महिला अधिकार संगठनों का तर्क है कि कानून को महिलाओं की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा के लिए बदलने की आवश्यकता है, चाहे वह विवाह के भीतर हो या बाहर।
सुप्रीम कोर्ट को अब पारंपरिक विवाह संरचना को बनाए रखने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के बीच संतुलन स्थापित करना होगा। इस मामले का परिणाम भारत में महिलाओं के अधिकारों की कानूनी स्थिति और समाज में बदलते वैवाहिक संबंधों पर दूरगामी प्रभाव डाल सकता है।
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